जाने क्यूं, सांसों की जगह, सिसकियां भर आती है
याद जब, वो बीती बातें, आती है।
जाने क्या बदलाव की आस लिए बैठे हैं,
कि, पत्थर की लकीर सा सच से आंख चुराए बैठे हैं।
एक कश्म-कश सी लगने लगी है, जिंदगी,
कभी रिश्तों की, कभी एहसासों की, तो कभी बीते 'बोल' की...कश्म-कश ।
थोड़ा- थोड़ा हरवक्त, ग़महीन रहते हैं।
चंचल है मन, जाने कैसे जिंदगी को जीना सीखेंगे,
जाने कब सुकून के किनारे पे लगेंगे,
और बस अपने आज में रहेंगे?
जाने क्यूं, सांसों की जगह, सिसकियां भर आती है
जब बेख्याली में वो एक "याद" आजाती है।
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