नज़दिक से गुज़रती फिजा से मैंने पूछा
कम से कम क्या तुम मेरी अपनी हो?
कुछ रूह के ज़ख्म..
हमें लगा था - वक्त ने जिन्हे सी दिया है
ऊधड़ से गए है...
क्या इन्हे भर पाओगी तुम?
तुम बहती हो हम हाथ थाम लेते हैं
फिर भटक न जाएं ज़िन्दगी की इस साए-साए में
क्या उन खोई आँखों की अश्रु धारा को
अपना पाओगी तुम?
क्या उन्हें उस चहरे की मुस्कराहट के रहते सूखा पाओगी तुम?
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