टूटना बिखरना तो दस्तूर हैं जिंदगी का...
इस सफर में कभी मजबूर, तो कभी मजबूत है - किरदार हर सख्श का...
क्यों सिमट सा गया है इंसान, तपती नदियों सा?
क्यूं भूला कि – वो तो विशाल है समुद्र सा!
मन तो था कि बयां करूं, हाल अपने मन का...
पर जब जोड़ा भीड़ से,
तो हल्का लगा बोझ अपने मन का।
टूटना बिखरना तो दस्तूर हैं जिंदगी का...
समझने की कोशिश करती हूं...
क्यों हुआ जो बीत गया?
क्या है जो लगे जैसे - जकड़ा हुआ?
क्यों खुद से है विश्वास इतना गिरा हुआ?
क्यों है बदलाव से मन इतना सहमा हुआ?
टूटना बिखरना तो दस्तूर हैं जिंदगी का...
क्यों भटकता है मन बंजारों सा...
कभी खुद पे तो कभी भीड़ पे
ध्यान बटा तो भी बेगानो सा ।
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