हंसती गुदगुदाती उन लम्हों की यादों में
जब सरोबार होते हैं हम...
ज़िंदगी तो चल रही होती है आगे
हम अपने अंतर्मन में, रुक कर पीछे कहीं, लम्हों को जी रहे होते हैं।
पर, न जाने कहाँ से एक टीस उभर आती है
बिल्कुल दबे पाँव...
हर एक बार...
पली होती है वो दर्द के आँगन में,
सिमटे हुए उन लम्हों को, जो कर गए चोट,
हर वो छोटी-बड़ी बात, या डांट, या मुकरना और या बिछड़ जाना...
कभी ना मिलने की वो कसक
वो सूनी खामोशी,
वो दिल में बैठी आस...
सब कुछ लिए,
हंसती गुदगुदाती, उन लम्हों की यादों में
अश्रु से बहा देती है सारी सजावट।
और झुठला देती है हमें, कि
सरोबार थे हम... हंसती गुदगुदाती उन लम्हों की यादों में।
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