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Tuesday, October 8, 2024

नाट्य- कला का समय हो गया...

चोट खाकर फिर गिरती हूं,

गिरकर, फिर उठती हूं,

कभी चोट की चुभन को सहती हूं,

तो कभी, उसे भी अपने हाल पे छोड़ देती हूं।


जितना इन सब से डरती थी...

आज कोई न कोई लम्हा उन से गुजर कर,

फिर आगे को चल पड़ती हूं।

पर हां, बस चलती रहती हूं।


रात के एकांत में,

बहुत दफा, इन चुने हुए चंद लम्हों के सुकून में,

बहने देती हूं, हर उस भावनाओं को जो 

शायद दिन के उजाले में,  मुझे कमज़ोर कर देती।


महफूज रहने की आदत जो थी मुझे!

अपनों के साएं में, 

सुरक्षित' उनकी दुआओं में,

घर वालों से सजे घरोंदो में।


जब वक्त आया,

डगमगाते, लड़खड़ाते उन अपनों का सहारा बनने का,

मानो जैसे बोझल होगया, बचपन मेरा।

अभी- अभी तो समझ आ रही थी - जिंदगी, और खुद को, खुद भी!

कि जैसे अचानक, 

मेरी जिंदगी के मंच का परदा उठ गया।


चलो, नाट्य- कला का समय हो गया...🎭

Sunday, October 6, 2024

Beneath the surface

Scattered like a fierce rain,

My emotions and feelings, in every vein.

Call it fickle or transient, the encounters with one I refrained!

Tyrant, like a fierce rain,

Washing off' the calm demeanor and surfacing the wrath 

My emotions and feelings, in every vein.


Psyche with layers of absolute strangeness, 

Unfurling every day, 

A new identity in every way!


Overwhelmed, I return to the blank paper 

Decorating  thoughts like a 'metaphor


Just like how earth would embrace each season

And finally get to experience rains...

One welcomes healing...