Thursday, August 8, 2024

बचपन से ही हम बहुत लड़े

 बचपन से ही हम बहुत लड़े, इतना लड़े कि:

लड़ना एक स्वरूप बन गया,

एक जरूरत, एक जूनून, एक जरिया बन गया।

हर मकसद को 'लड़ कर’ पाना एक सच बन गया।


एक वक्त ऐसा आया जब एक लड़ाई हम बाहर लड़ रहे 

तो एक अपने मन में

फर्क इस बार सिर्फ इतना था कि – दोनो की दिशाएं अलग थी

इस दो तरफा द्वंध में हम सिर्फ दिन काट रहे थे।


फिर, एक पड़ाव ऐसा आया - 

हमारे लिए लड़ाई लड़ने का अर्थ ही खो गया,

लगा जैसे हम अपने–आप से पूछ रहें हो कब तक और किस के लिए?

शायद सही–गलत की गुत्थी में उलझे रहे...

या फिर ' ऊपर' वाले का हिसाब है, समझकर आगे बड़ गए।


नया तजुर्बा था, जिंदगी का!

वक्त लगा इसे अपनाने में...

उस लड़ाकू–पन के खामोश हो जाने में

उस सन्नाटे के अंधेरो में,

पर एक अजीब सा सुकून था ‘इस बात को अपनाने में’


बचपन से ही हम बहुत लड़े, इतना लड़े कि:

लड़ना एक स्वरूप बन गया...

लड़ाई छूट गई पर सिसकियां रह गई, यादें बन के।

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